कवि दिविक रमेश का कविता-संग्रह गेहूँ घर आया है अपने आस-पड़ोस और अपनी मिट्टी से संवाद स्थापित करती ऐसी कविताओं का संग्रह है, जिसमें कवि की अभिव्यक्ति स्थानीयता का आधार लेकर सार्वभौम हो चली है। हालाँकि, ‘यात्रान्त’ में कविता कुण्डलिनी और रूस तक की सैर कर आती है। यह अनायास नहीं है कि कवि के मानसिक और स्थानिक भूगोल को प्रतिबिम्बित करती इन कविताओं में जंगल, फूल, रंग, घास, सूरज, चिड़िया और पंख जैसे शब्दों का बाहुल्य है। साथ ही, मौका और ‘मौसम’ पाते ही कवि का ‘मन टहल आता है गठरी उठाए/किसी छोटे स्टेशन के प्लेटफार्म पर’ और ‘निगाहें/टपर-टपर/कर आती हैं यात्रा बैलगाड़ी पर’।
दिविक रमेश की कविताएँ हमें जिन्दगी से प्रेम करने वाले उस मानस से दो-चार कराती हैं, जिसमें सुख-दुख और हर्ष-विषाद से बुनी जिन्दगी को हर हाल में जीने की लालसा बची हुई है। जीवन के प्रति गहरी आस्था और जिजीविषा जिन्दगी से ‘बहुत प्यार’करने वाले कवि की कविताओं का केन्द्रीय तत्त्व है। जीवन के प्रति मोह ही है कि अपनी धुरी पर अनवरत नाच रही पृथ्वी की गति को थामने और काल को ठिठक जाने का इशारा करता हुआ वह कहता है--‘खोल दूँगा आज/समेटी पड़ी धूप को/जाने दूँगा उसे तितलियों के पंख सँवारने।’
स्थानीयता के तन्तुओं से कविता की चादर बुनने वाले दिविक रमेश की काव्य-दृष्टि का विस्तार ‘झाड़-झंखाड़-सी माँ’, ‘उजाड़ विरक्त किले-से पिता’, ‘सलमा चाची’, ‘बुआ’, किस्सागो ‘परसादी’ और ‘धांधू कुम्हार’ से लेकर उस पीपल और कुएँ तक है, जिसके बारे में ‘दावा है कई बूढ़े ठेरों का/कुएँ के बाशिन्दे नाग-नागिन/असल में आत्माएँ हैं और/पीपल डेरा है भूत-भूतनियों का’।
‘भूत’ कविता इसलिए अद्वितीय बन पड़ी है कि मिथक और फन्तासी के साथ सरोकार का ऐसा मिश्रण कविता में कम ही दिखाई पड़ता है। ‘कहते हैं सौत की सताई एक शरीफ चौधराइन को छोड़/ सभी, छोटे घरों की औरतें हैं भूतिनयाँ/मर्द बस दो हैं/एक भोला ब्राह्मण और दूसरा रामसिंह कहार/...बहुत देर लगी है यकीन करते, लोगों को/इतना बेशर्म कैसे हो गया रामसिंह कहार/कैसे खो बैठा शर्म आँखों की/भूत बनते ही/...भोला ब्राह्मण अकसर कम निकलता है/थोड़ा शर्मीला भूत है/कहते हैं थोड़े-बहुत दान से ही सन्तुष्ट हो जाता है/ ... ताज्जुब है जहाँ/अब भी छोटे घरों की औरतें/दबी-पिटी-सी जुटी रहती हैं काम में/खुद को पुजवाती हैं/ओहदेदार दबंग औरतों-सी/छोटे घरों की भूतनियाँ/...अजीब बात है इनकी दुनिया में/न कोई छोटा-बड़ा है न जात-पात का रफड़ा है।’
सुविधावाद और शार्टकट के जरिए रास्ते तय किए जाने के इस दौर में यथास्थिति के विरोध की सम्भावनाओं पर पानी फिरते देख कवि कहता है--‘एक आदमी जो चिल्ला सकता था/चुप हो जाएगा/और सम्मिलित हो जाएगा उसी गिरोह में/जहाँ संलग्न है हर कोई/अपना-अपना सुख बटोरने में/और कभी-कभार/अपने ही गिराह के सदस्य पर/फर्जिया गुर्राने में। बावजूद इसके, कवि निराश नहीं है क्योंकि ‘अभी शेष है बेचैनी बीज में/अकुला जाता है जो/भूख के नाम से’।
प्रकृति और अपने आस-पास पर रीझे कवि को आत्मालोचना से परहेज नहीं है, न ही वह आत्मुग्धता का शिकार है। वह स्वीकारता है--‘गनीमत है कि मुझे याद है इबारत/कि मैं हो रहा हूँ/न कि किया जा रहा हूँ/अदृश्य’। पूरी सभ्यता, आदमीयत और खुद को बचाने और बचाए जाने की मंशा से कवि कहता है--‘बच सकूँ तो बचूँ/जैसे बचाया जाना चाहिए आदमी को/जमीन से ज्यादा/सोच पर वार कर रहे हमलावरों से’।
दुनियादारी की उलझनों से हतप्रभ कवि प्रकृति से प्रेरणा लेता है। उसकी यह प्रेरणा ‘चिड़िया का ब्याह’और ‘आकाश और आदमी’जैसी कविताओं में आभासित होती है। चिड़िया और आकाश के प्रति आकर्षण की वजह यह है कि ‘चिड़िया का/दहेज नहीं सजता’और ‘चिड़िया/आत्महत्या/नहीं करती’ और भले ही मनुष्य ने अपनी मनुष्यता खोई हो और ईमान ने अपनी ईमानदारी, ‘लेकिन आकाश को/कहीं भी/अपना आकाश खोते/नहीं देखा’है कवि ने।
हिन्दी के कृतघ्न और अल्प-स्मृतिजीवी समाज में कवि अपने समधर्मियों को याद करना नहीं भूलता। इसी क्रम में पाश और शमशेर याद किए गए हैं। शमशेर के लिए कवि कहता है--‘शरीर में जैसे/हर चीज अपनी जगह है/शमशेर की कविता है...जैसे आँगन/माँ ने माटी से/अभी-अभी लीपा है/शमशेर की कविता है’। शब्द न सिर्फ स्थिति के प्रकाशन का काम करते हैं, बल्कि अनपेक्षित रूप से शब्दों के माध्यम से ही सही स्थितियों-सच्चाई को छिपाने का प्रयास भी चलता रहता है। ऐसे समय में जब शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं और अपने लिए उचित सन्दर्भ की उनकी तलाश निरन्तर जारी रहती है, पाश के बारे में कवि की धारणा है--‘हमारे वक्तों में/पर एक कवि हुआ था पाश/ अर्थों के बटन/शब्दों के सही काजों में सँवारता’।
प्रस्तुत संग्रह में दिविक रमेश के अब तक के काव्य-संग्रहों से चुनी हुई कविताओं के अलावा कुछ अन्य कविताएँ भी शामिल की गई हैं। चयन वरिष्ठ कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी ने किया है। पुस्तक के शुरू में ‘अकेले होने पर भरोसा’और ‘मिट्ठी से जन्मती है कविता’शीर्षकों से क्रमशः अशोक वाजपेयी और प्रो.ए. अरविन्दाक्षन की समीक्षाएँ भी शामिल की गई हैं। अशोक वाजपेयी ने जहाँ दिविक रमेश की कविताओं में सहभागिता के साथ आत्मनिष्ठा और जिजीविषा को रेखांकित किया है, वहीं अरविन्दाक्षन ने कवि और उसके भूगोल के अन्तःसबन्धों को व्याख्यायित किया है।
जनसत्ता में प्रकाशित (21.03.10)
गेहूं घर आया है, दिविक रमेश, किताबघर प्रकाशन, 4885-56/24,
अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, 175 रुपए।
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