Friday, August 28, 2015

मुश्किल मकान की



                दिल्ली में बेगानेपन का पता तब चलता है जब आप यहाँ कमरा ढूँढ़ने निकलते हैं। गोया भीख माँगने निकले हों। प्रापर्टी डीलर से बचने के लिए भिक्षाटन ही सही। किसी तरह कई इलाकों की खाक छानकर एक किराए का छोटा-सा कमरा पा सका हूँ। इस इलाके में प्रायः कामकाजी लोग रहते हैं। छोटे-मोटे कामगार या नौकरीपेशा। एक कमरे का किराया आठ-नौ सौ रुपए से लेकर लगभग दो हजार रुपए तक है। इस लिहाज से यह दिल्ली के सस्ते इलाकों में गिना जा सकता है। मुझे जो कमरा मिला वह पन्द्रह सौ रुपए का है। बिजली बिल बीच में।बीचमें यानी बिजली बिल अलग से नहीं देना पड़ेगा। पचास रुपए तब और जोड़ दिए गए जब मैंने मकान मालिक से अपने पास टेलीविजन होने की बात कही।
                पहली रात कमरे की व्यवस्थित करने में मदद के लिए मेरे एक मित्रा साथ थे। मित्रा दूसरे दिन शाम तक रहे। उनके जाने के कुछ पहले मालिक खिड़की पर खड़े मुझसे संवाद स्थापित कर रहे थे, ‘सामान ठीक कर लिया?’ ‘जी।’ ‘अब भेज दो इसको।’ ‘जी-जी।मैंने बेहद झेंपकर और अपने मित्रा से नजरें बचाते हुए इस अनपेक्षित स्थिति का सामना किया। सौभाग्य से मित्रा इस संवाद को नहीं समझ पाए। मित्रा गए। मालिक आए।आपको मेरे मित्रा से कोई परेशानी थी?’ ‘नहीं-नहीं, देखो ऐसा है कि बाथरूम एक ही है। अब रहने पर तो नहाना-धोना सब होता हैै।फिरआचार संहिताःऔरसूक्तिःजैसे बचपन के संस्कृत पाठों के जो श्लोक मैं कब का भूल चुका था, मालिक सोदाहरण समझाने, याद दिलाने लगे।दोस्ती बाहर-बाहर की अच्छी होती है।’ ‘पैसे हैं तो सभी पूछेंगे, नहीं तो कोई नहीं।उन्हें क्या मालूम कि अगले तीस दिन जिन्दा रहने की गारण्टी के साथ एक महीना का जो एडवांस मैंने उन्हें दिया था वह उन जैसे मित्रों से ही लिये गए थे।
                साधारण फ्रीलांसर का दफ्तर उसका कमरा ही होता। घूम-घूमकर एक बार काम का आर्डर ले आओ, फिर कमरे पर ही उसे पूरा करना होता है। तीन-चार दिन मुझे दिन-रात कमरे पर देख मालिक चकित थे। उनका ध्यान मेरे बल्ब और पंखे पर रहता। एक शाम बोल ही पड़े, ‘आप दफ्तर नहीं जाते?’ ‘जी नहीं।’ ‘आपका ज्यादातर काम यहीं होता है, (कुछ ठहरकर) तब तो अलग मीटर लगवाना पड़ेगा।मैं कुछ सफाई में कहता उसके पहले ही उन्होंने कहा, ‘नहीं, लोग दफ्तर जाते हैं, रात मंे केवल सोते हैं। आपका तो पंखा चैबीस घण्टे चलता है।मीटर लगाने की बात तय हो गई है।     
                दो-तीन घण्टे बाद मालिक ने फिर दरवाजा खटखटाया।आप किसे मानते हो, माता को?’ ‘जी, सबको मानता हूँ।’ ‘कभी मन्दिर जाते तो देखा नहीं। रोज सुबह मन्दिर जाया करो। इस दुनिया में कुछ नहीं है, वही साथ जाणा है। बीवी-बच्चे एक साथ नहीं जाते। सुबह-सुबह कालका मन्दिर जाया करो।ये बातें कहते-कहते मानो वे समाधिस्थ हो गए। अचानक की प्रकृतिस्थ हो बोले, ‘चलो बिजली का सौ और दे देना। मन्ने कहा, अब कहाँ मीटर लगवाऊँ। तुझे भी परेशानी, मुझे भी परेशानी।मानसिक प्रताड़ना से बचने के लिए मैं पचास रुपए और देने को राजी हुआ।देख लो, आपकी खुशी में हमारी खुशी है। साढ़े सोलह सौ नहीं हो पाएँगे?’ मालिक ने प्रसन्नबदन कहा, ‘जी मुश्किल है।मैंने कहा, ‘चलो ठीक है। मैं तो यही कहूँगा कि तुम्हें काँप लगे मुझे काँप लगे।मालिक की बूढ़ी आँखें चमक रही थीं।
                विकसित होते नगरों और महानगरों में किराए का धन्धा बिना हर्रे-फिटकरी के चोखा रंग देता है। आपका परिश्रम कोई अर्थ नहीं रखता। सरकारी नियमों के मुताबिक जिस कमरे का मासिक किराया दो सौ रुपए होना चाहिए, उसी कमरे के लिए हम बड़े अनुशासन और बड़ी विनम्रता से चेहरे पर मृदुल हास्य के भाव के साथ मकान मालिकों को पन्द्रह सौ से दो हजार रुपए तक सौंप कर कृतार्थ होते रहते हैं।
                हम जैसे घुमन्तू और खानाबदोशों के लिए यों भी एक जगह पर अधिक दिन टिके रहना मुश्किल होता है। जल्दी ही नए मालिक और नए ठौर की तलाश में निकलना होगा।


                          (दुनिया मेरे आगे) जनसत्ता, दिल्ली, 20 जून 2007