Tuesday, September 13, 2011

लोक परिवेश में जिजीविषा के रंग


                   
कवि दिविक रमेश का कविता-संग्रह गेहूँ घर आया है अपने आस-पड़ोस और अपनी मिट्टी से संवाद स्थापित करती ऐसी कविताओं का संग्रह है, जिसमें कवि की अभिव्यक्ति स्थानीयता का आधार लेकर सार्वभौम हो चली है। हालाँकि, ‘यात्रान्तमें कविता कुण्डलिनी और रूस तक की सैर कर आती है। यह अनायास नहीं है कि कवि के मानसिक और स्थानिक भूगोल को प्रतिबिम्बित करती इन कविताओं में जंगल, फूल, रंग, घास, सूरज, चिड़िया और पंख जैसे शब्दों का बाहुल्य है। साथ ही, मौका औरमौसमपाते ही कवि कामन टहल आता है गठरी उठाए/किसी छोटे स्टेशन के प्लेटफार्म परऔरनिगाहें/टपर-टपर/कर आती हैं यात्रा बैलगाड़ी पर

                दिविक रमेश की कविताएँ हमें जिन्दगी से प्रेम करने वाले उस मानस से दो-चार कराती हैं, जिसमें सुख-दुख और हर्ष-विषाद से बुनी जिन्दगी को हर हाल में जीने की लालसा बची हुई है। जीवन के प्रति गहरी आस्था और जिजीविषा जिन्दगी सेबहुत प्यारकरने वाले कवि की कविताओं का केन्द्रीय तत्त्व है। जीवन के प्रति मोह ही है कि अपनी धुरी पर अनवरत नाच रही पृथ्वी की गति को थामने और काल को ठिठक जाने का इशारा करता हुआ वह कहता है--‘खोल दूँगा आज/समेटी पड़ी धूप को/जाने दूँगा उसे तितलियों के पंख सँवारने।

                स्थानीयता के तन्तुओं से कविता की चादर बुनने वाले दिविक रमेश की काव्य-दृष्टि का विस्तारझाड़-झंखाड़-सी माँ’, ‘उजाड़ विरक्त किले-से पिता’, ‘सलमा चाची’, बुआ’,  किस्सागोपरसादीऔरधांधू कुम्हारसे लेकर उस पीपल और कुएँ तक है, जिसके बारे मेंदावा है कई बूढ़े ठेरों का/कुएँ के बाशिन्दे नाग-नागिन/असल में आत्माएँ हैं और/पीपल डेरा है भूत-भूतनियों का

                ‘भूतकविता इसलिए अद्वितीय बन पड़ी है कि मिथक और फन्तासी के साथ सरोकार का ऐसा मिश्रण कविता में कम ही दिखाई पड़ता है।कहते हैं सौत की सताई एक शरीफ चौधराइन को छोड़/ सभी, छोटे घरों की औरतें हैं भूतिनयाँ/मर्द बस दो हैं/एक भोला ब्राह्मण और दूसरा रामसिंह कहार/...बहुत देर लगी है यकीन करते, लोगों को/इतना बेशर्म कैसे हो गया रामसिंह कहार/कैसे खो बैठा शर्म आँखों की/भूत बनते ही/...भोला ब्राह्मण अकसर कम निकलता है/थोड़ा शर्मीला भूत है/कहते हैं थोड़े-बहुत दान से ही सन्तुष्ट हो जाता है/ ... ताज्जुब है जहाँ/अब भी छोटे घरों की औरतें/दबी-पिटी-सी जुटी रहती हैं काम में/खुद को पुजवाती हैं/ओहदेदार दबंग औरतों-सी/छोटे घरों की भूतनियाँ/...अजीब बात है इनकी दुनिया में/ कोई छोटा-बड़ा है जात-पात का रफड़ा है।

                सुविधावाद और शार्टकट के जरिए रास्ते तय किए जाने के इस दौर में यथास्थिति के विरोध की सम्भावनाओं पर पानी फिरते देख कवि कहता है--एक आदमी जो चिल्ला सकता था/चुप हो जाएगा/और सम्मिलित हो जाएगा उसी गिरोह में/जहाँ संलग्न है हर कोई/अपना-अपना सुख बटोरने में/और कभी-कभार/अपने ही गिराह के सदस्य पर/फर्जिया गुर्राने में। बावजूद इसके, कवि निराश नहीं है क्योंकिअभी शेष है बेचैनी बीज में/अकुला जाता है जो/भूख के नाम से

                प्रकृति और अपने आस-पास पर रीझे कवि को आत्मालोचना से परहेज नहीं है, ही वह आत्मुग्धता का शिकार है। वह स्वीकारता है--गनीमत है कि मुझे याद है इबारत/कि मैं हो रहा हूँ/ कि किया जा रहा हूँ/अदृश्य पूरी सभ्यता, आदमीयत और खुद को बचाने और बचाए जाने की मंशा से कवि कहता है--बच सकूँ तो बचूँ/जैसे बचाया जाना चाहिए आदमी को/जमीन से ज्यादा/सोच वार कर रहे हमलावरों से

                दुनियादारी की उलझनों से हतप्रभ कवि प्रकृति से प्रेरणा लेता है। उसकी यह प्रेरणाचिड़िया का ब्याहऔरआकाश और आदमीजैसी कविताओं में आभासित होती है। चिड़िया और आकाश के प्रति आकर्षण की वजह यह है किचिड़िया का/दहेज नहीं सजताऔरचिड़िया/आत्महत्या/नहीं करतीऔर भले ही मनुष्य ने अपनी मनुष्यता खोई हो और ईमान ने अपनी ईमानदारी, ‘लेकिन आकाश को/कहीं भी/अपना आकाश खोते/नहीं देखाहै कवि ने।

                हिन्दी के कृतघ्न और अल्प-स्मृतिजीवी समाज में कवि अपने समधर्मियों को याद करना नहीं भूलता। इसी क्रम में पाश और शमशेर याद किए गए हैं। शमशेर के लिए कवि कहता है--शरीर में जैसे/हर चीज अपनी जगह है/शमशेर की कविता है...जैसे आँगन/माँ ने माटी से/अभी-अभी लीपा है/शमशेर की कविता है शब्द सिर्फ स्थिति के प्रकाशन का काम करते हैं, बल्कि अनपेक्षित रूप से शब्दों के माध्यम से ही सही स्थितियों-सच्चाई को छिपाने का प्रयास भी चलता रहता है। ऐसे समय में जब शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं और अपने लिए उचित सन्दर्भ की उनकी तलाश निरन्तर जारी रहती है, पाश के बारे में कवि की धारणा है--हमारे वक्तों में/पर एक कवि हुआ था पाश/ अर्थों के बटन/शब्दों के सही काजों में सँवारता

                प्रस्तुत संग्रह में दिविक रमेश के अब तक के काव्य-संग्रहों से चुनी हुई कविताओं के अलावा कुछ अन्य कविताएँ भी शामिल की गई हैं। चयन वरिष्ठ कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी ने किया है। पुस्तक के शुरू मेंअकेले होने पर भरोसाऔरमिट्ठी से जन्मती है कविताशीर्षकों से क्रमशः अशोक वाजपेयी और प्रो.. अरविन्दाक्षन की समीक्षाएँ भी शामिल की गई हैं अशोक वाजपेयी ने जहाँ दिविक रमेश की कविताओं में सहभागिता के साथ आत्मनिष्ठा और जिजीविषा को रेखांकित किया है, वहीं अरविन्दाक्षन ने कवि और उसके भूगोल के अन्तःसबन्धों को व्याख्यायित किया है।

                                         जनसत्ता में प्रकाशित (21.03.10)

                 गेहूं घर आया है, दिविक रमेश, किताबघर प्रकाशन, 4885-56/24,         
                                अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, 175 रुपए। 
                            

Friday, September 9, 2011

वर्गीय छलांग का द्वन्द्व


                            
 मराठी के प्रतिष्ठित साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण गायकवाड़ की प्रभा शेटे द्वारा हिन्दी में अनूदित पुस्तक पथर कटवा दक्षिण भारत के अति पिछडे़ वडार समाज के संघर्षपूर्ण जीवन की व्यथा-कथा है। यह जहाँ एक ओर विकासोन्मुख कहे जाने वाले देश-समाज की विद्रूपता को व्यंजित करती है वहीं दूसरी ओर दलितों में से उभरकर आए सुविधा-सम्पन्न वर्ग की स्वार्थान्धता और अपने ही समाज के प्रति उनकी उदासीनता को भी रेखांकित-प्रश्नांकित करती है।
                उपन्यास समाज के वर्ण और वर्ग विभाजन को नए सन्दर्भ में देखता है। शोषित और शोषक के बीच की ऊँची दीवार को लाँघकर शोषकों की ओर जाने वाला भी इसी भूमिका में जाता है। कथा का केन्द्रीय पात्र तुकाराम वंचित वर्ग का होने के बावजूद अपनी सामाजिक संवेदना को बिसराता जाता है। उसे अपने समाज के बजाय केवल अपनी और अपने कारखाने के फायदे की फिक्र है। वह फैक्ट्री की शोषक नीतियों का समर्थक है। हालाँकि उसने कई वडारों को अपने यहाँ कामगार की नौकरी भी दी है, लेकिन ऐसा उसने फैक्ट्री में महज अपनी स्थिति को मजबूत करने के इरादे से किया है। हड़ताल आदि के समय इस लाबी का इस्तेमाल वह अपने फायदे के लिए करता है। नवधनाढ्य तुकाराम शराब, औरत और जागीर जैसी उन तमाम बुराइयों में डूब जाता है जिन्हें कथित सम्भ्रान्तों का दुर्गुण माना जाता है।
                एक ही समुदाय के तुकाराम और मगरू धोतरे दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। तुकाराम सुविधाभोगी वर्ग का प्रतिनिधि है तो मगरू पिछड़ों में रही सामाजिक-राजनीतिक चेतना का प्रतीक जो उनकी दमनीय अवस्था से पैदा होती है और शासन से जिसकी अपेक्षाएँ आक्रोश की सीमा तक जाती हैं। वडार समाज की माँगों और परेशानियों को लेकर संघर्ष करने वाला मगरू धोतरे कभी तुकाराम की सूत फैक्ट्री में एक साधारण कामगार है, जिसे तुकाराम हड़ताल का नेतृत्व करने के कारण मौका पाते ही नौकरी से निकाल देता है।
                तुकाराम का बेटा रामलाल इटकर उस नवसामन्त और अपनी जमीन से दूर होते वर्ग का हिस्सा है जो अपने पैतृक रसूख का तो अपने हित के लिए हरसम्भव गलत इस्तेमाल करता है पर आधुनिक बनने की होड़ में उन्हीं पुरखों के बुढ़ापे और बीमारी से घृणा भी करता है। आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद तुकाराम के दोनों बेटे रामलाल और पोपटलाल के बीच की अनबन और रामलाल द्वारा पिता की अवहेलना में एकल परिवार का द्वन्द्व भी देखा जा सकता है।
                                                              जनसत्ता में प्रकाशित ( 03.06.2007)

                        किताब-पथर कटवा, लेखक-लक्ष्मण गायकवाड़, अनुवाद-प्रभा शेटे
                         वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली, 250 रुपए