Monday, September 5, 2011

नींद से पहले किले में बंद एक प्रेम कहानी

            

कहते हैं, पानी अपना तल स्वयं ढूंढ़ लेता है। दुनियावी यादृच्छिक संबंधों के बीच कोई संबंध ऐसा भी होता है जो सभी विडंबनाओं, विद्रूपताओं के बावजूद मानो पूर्व निश्चित होता है और अंततः एकमेक हो जाता है। पैंतालिस साल तक इस फलसफे को जीने वाले अमृता-इमरोज के अनोखे प्रेम संबंध के अंतिम दस वर्षों को करीब से देखने वाली उमा त्रिलोक की किताब अमृता इमरोज सामाजिक संकीर्णमत से बेपरवाह अंत तक साथ चलने वाले दो दीवाने राहगीरों की कहानी है।

       अमृता प्रीतम का जीवन एक जिंदगी में अनेक जिंदगियों का उदाहरण रहा। बीस साल लंबे नीरस वैवाहिक जीवन के दौरान और उसके बाद अमृता के कई प्रेम संदर्भ बने- साहिर लुधियानवी, सज्जाद हैदर और इमरोज के साथ। साहिर को बम्बई और सज्जाद को बंटवारे ने छीन लिया। इमरोज उनकी जिंदगी में शायद सबसे बाद में आए पर हमेशा के लिए। वे तब भी उनके साथ थे, जब अमृता अपनी जिंदगी की शाम में इमरोज का हाथ पकड़कर, छैलकड़ी के पौधे को अपने होठों से छूने के लिए धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ कर छत पर जाती हैं।

          इमरोज अपने ढंग के अद्वितीय प्रेमी हैं। उन्होंने अमृता से उनकी पूरी परिस्थितियों- बच्चों, पूर्व प्रेमियों की परछाइयों के साथ प्यार किया। इमरोज ने काले गुलाब के उस बाग से प्रेम किया जिसका केवल एक कोना अमृतामय था। अमृता की जिंदगी जितने पड़ावों से गुजरी हो, पर यह सच है कि इमरोज की मंजिल-ए-मकसूद केवल अमृता थीं और शायद अब भी है।

           प्रेम को प्रायः खास उम्र की बाड़ में ही महफूज माना जाता है। तात्कालिकता और उम्र की उठान के आगोश में आकर किसी को चाहना एक बात है और ढलती उम्र- बुढ़ापे, बीमारी में भी उसकी परस्तिश में मुब्तिला रहना बिल्कुल दूसरी बात। गुलाबी उम्र और स्याह अवस्था के नेह-छोह को एक-सा बनाए रखना उतना आसान नहीं होता। ऐसे समय प्रेम कसौटी पर होता है। इमरोज का चित्रकार अपनी संयमी-समर्पित कूची से अमृता के रस-बेरस जीवन के बचे हुए सपनों में रंग भर कर अभावों को भावमय बनाता रहा। उनकी बेशर्त सनातन निष्ठा, समर्पण और अहं का विलोपन उन्हें एक आध्यात्मिक किस्म के साधक का दर्जा दे देता है। उमा चकित हैं, किसी के साथ कोई कैसे इतनी शदीद मोहब्बत कर सकता है? इस हद तक कि महबूब की शख्सियत में अपने आप को बिल्कुल मिला ही दे और खुद भी उसी में समा जाए-अपनी खुदी को मिटाकर-ऐसा करना इमरोज सरीखे शख्स के बस की बात ही है। उन्हें दुनिया से कुछ लेना-देना ही न हो जैसे।

           जड़ सामाजिक रीतियों को अमृता ने मूक किन्तु सशक्त चुनौती दी। जहां स्त्री का परपुरुष से बात तक करना निषेद्य समझा जाता है, वहां अमृता ने उसके साथ आधा जीवन बिताया, लोगों की निगाह में अनेक बातें आपत्तिजनक थीं- कुछ सच और कुछ मनगढ़ंत। अमृता जन्म से सिख थीं, लेकिन वे अपने बाल कटवाकर छोटे रखती थीं, सिगरेट पीती थीं, कभी-कभी ड्रिंक भी ले लेती थीं। लेकिन शायद सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एक ऐसे आदमी के साथ रहती थीं जो उम्र में उनसे छोटा था, जिसे वे प्यार करती थीं, लेकिन जिससे उन्होंने शादी नहीं की थी। लेकिन इन प्रेमियों में समाज के प्रति बाहर से दिखने वाली लापरवाही, अल्हड़ता एक गहरे दायित्व बोध से संपृक्त है। जहां लोग हताशा-निराशा में अपने को ही नष्ट करने पर तुल जाते हैं, वहां दुख और अंधियारे में भी पैठकर सुख का टुकड़ा तलाश लेना अमृता की खासियत रही। इनके प्रेम की परिभाषा हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की तरह परंपरा का निषेध तो करती है, लेकिन एक नई परंपरा की पक्की बुनियाद भी रखती है।

         अमृता इमरोज उन चंद किताबों में है जो अपनी संवेदनशीलता और रोचकता की जद में इस कदर आपको कैद करती है कि एक बैठक में आद्यन्त पढ़े बिना आप उनसे मुक्त नहीं हो पाते। उमा त्रिलोक की डायरी का हर महकता पन्ना दो बड़े कलाकारों के रेशमी रिश्ते से हमारा तआरूफ करवाता है। काल के पक्षी के साथ अमृता को उड़ जाना पड़ा लेकिन जाते-जाते वे यह वादा कर गईं
                 मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
                 कहां, किस तरह, पता नहीं
                 शायद तेरी तखईय्ल की चिंगारी बन
                 तेरे कैनवस पर उतरूंगी
                 या तेरे कैनवस पर
                 एक रहस्यमय लकीर बन
                 खामोश तुझे देखती रहूंगी

                                   हिन्दुस्तान में प्रकाशित (22.04.2007)
                                       
               किताब-अमृता इमरोज, लेखक---उमा त्रिलोक, प्रकाशक---पेंगुइन बुक्स इंडिया
                                11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली
                                      कीमत----110 रु.

            

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