Monday, September 5, 2011

सियासी हालात पर फीकी हंसी


                         
                पत्रकार, लेखक और ब्लॉगर पुण्य प्रसून वाजपेयी की किताबराजनीति मेरी जानसमकालीन भारतीय राजनीति और उसके लोक प्रशासनिक उपकरणों की विडम्बनाओं और विद्रूपताओं को बड़े ही मार्मिक किन्तु तल्ख अन्दाज में सामने लाती है। पुस्तक के 34 लेखों में लेखक ने राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, नक्सलवाद, तंकवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद जैसे मुद्दों पर भाषा के अपने खास लहजे में बेबाक राय रखी है।
                भूमण्डलीकरण, बाजार और मीडिया ने मिलकर भारतीय समाज में जो चाकचिक्य रचा है उसने रोजी-रोटी की समस्या को अप्रासंगिक-सा बना दिया है। दरअसल, अपने साठ साल के लोकतन्त्र की निरन्तरता पर हम जितना नाज कर लें, सच यह भी है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी देश का बहुसंख्यक जन गण मन उपेक्षित है। नई अर्थव्यवस्था और उद्योगीकरण की काली आँधी भूमिजीवी किसानों की जमीन लीलने को बेताब है तो बड़े पैमाने पर इसने विस्थापन की पीड़ा को भी प्रश्रय किया है। सिंगूर और नन्दीग्राम से लेकर मुम्बई जैसे शहर को अपनी चपेट में लेने वाली विकास की इस राजनीति परराजनीति की अन्धी गलीशीर्षक लेख में प्रसून सवाल करते हैं, ‘‘विकास के इस आतंकवाद के खिलाफ क्या कोई कानून है?’’
                विकास के आतंकवाद के साथ ही लेख सम्पन्नता और विपन्न्ता की खाई को और चौड़ा करने वालेआर्थिक आतंकवादऔर पुलिसिया आतंक की गहन छानबीन करता है। किसानों की कब्रगाह पर उद्योगीकरण की सरकारी तैयारी और बंगाल में माकपा और माओवादियों के बीच जारी वाम-अतिवाम संघर्ष और माकपा के कैडर आतंक कोसामाजिक संघर्ष की दस्तकऔरजिन्दगी हारी, राजनीति जीतीशीर्षक लेखों में दर्ज किया गया है विकास और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसे के उजाले से दूर छत्तीसगढ़ में निरीह आदिवासियों को नक्सली बताकर उन्हें मुठभेड़ में खत्म करने के पुलिसिया आतंक पर सेछत्तीसों मुठभेड़, मरते आदिवासीपरदा उठाता है।कश्मीरी समाज के जख्मके जरिए आतंकवाद और सेना की कार्रवाई के बीच असहज जीवन जी रहे कश्मीरियों की त्रासदी को महसूस किया गया है। अन्य लेखों में नक्सलवाद और आतंकवाद की पड़ताल के साथ ही दलित आन्दोलन के भटकाव और सियासी दलों की नीतियों का रेखांकन हुआ है।
                तमाम राष्ट्रीय विषयों पर बहस के दरमयान प्रसून स्पष्ट करते हैं कि जब सत्ता ही मध्यस्थ की भूमिका में है तो जनता की आवाज कौन सुने। सरकारों के साथ देश के मध्यवर्ग और चौथे खम्भे के बिचैलिया बनकर उभरने की प्रवृत्ति को लेखक मुद्दे जनता के, नेता जनता केशीर्षक लेख में प्रश्नों की परिधि में लाता है, ‘‘जाहिर है कि मिडिलमैन  से मिडि बिजनेस की व्यवस्था में जब सरकार भी खुद को विकसित देशों में मिडिलमैन की तर्ज पर रखकर नीतियाँ बनाने में जुटी हो, तब महँगाई से सरकार आहत नहीं होती। किसानों की आत्महत्या उसे हिला नहीं रही...गरीबी और भुखमरी के बीच एटमी करार देश के किस तबके की जरूरत पूरा करेगी? यह सवाल संसद के भीतर आँकड़ों के सहारे सहमति-असहमति का नहीं है। सवाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में संसद और सरकार के जरिए ही लोकतन्त्र को ठिकाने लगाने का है।“  आँकड़ों और तथ्यों के जाल से कोई सार्थक सूत्र पकड़ते हुए और किसी सूत्र की सिद्धि के लिए आँकड़ों में तैरने की श्रमसाध्य करता हुआ लेखक अपनी बात कहता है। जाहिर है, गहन अध्यवसाय, शोधपरकता, यायावरी और उससे भी आगे लोक सरोकार की पत्रकारीय निष्ठा के बिना यह सम्भव नहीं है। शायद इसलिए ही, अलग-अलग मौकों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिये लिखे गए ये आलेख स्थायी महत्त्व रखते हैं।
                सरोकारनामक उपशीर्षक के तहत लेखक ने समाज, साहित्य और लेखन के अंतर्संबंधों की थाह ली है।फासीवाद और लेखकऔरसमाज से कटा लेखनजैसे लेखों में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खतरे के प्रति आगाह करते हुए प्रसून यह प्रतिपादित करते हैं कि जनपक्षधरता ही लेखन का उपादेय हो सकती है। अन्यथा, कोरे साहित्यिक लेखन से समाज के चारित्रिक तन्तुओं को नहीं बदला जा सकता। इसी क्रम में कमलेश्वर को बेहतरीन श्रद्धांजलि दी गई है।
                यह किताब सिर्फ देश की संसदीय प्रणाली के कपटतन्त्र और लोक-विमुखता को बेनकाब करती है बल्किएक ही बाजी, सौदेबाजीके इस निर्मम दौर में उनलाखों अकेले लोगोंके साथ खड़े होने का साहस भी करती है, जिसे विकास की राजनीति के द्म, अर्थनीति के अन्याय और प्रशासनिक प्रपंच ने नेस्तनाबूद कर दिया है। यह किताब सनसनी, सेक्स, हंसी-ठहाकों और  तात्कालिकता में डूबती-उतराती और अभिनय का मामला बनती मीडिया की काजल की कोठरी से राजनीतिक संत्रास, वर्गीय असाम्य और मीडिया की बेईमानी पर एक ईमानदार बयान है।

                  किताब--राजनीति मेरी जान, लेखक--पुण्य प्रसून वाजपेयी, अंतिका प्रकाशन,                        
                                शालीमार गार्डन-2, गाजियाबाद, उ.प्र.
                                       कीमत300 रुपये

साभारः इंडिया टुडे (05.08.2009)

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