अपनी धुरी पर नाचती हुई सूर्य का चक्कर लगाती पृथ्वी की कल्पना इसलिए भी कठिन जान पड़ती है क्योंकि एक ही समय में वह दो बिन्दुओं के सापेक्ष घूर्णन करती है। सनातनता की धुरी पर नियमित रूप से और सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, मूल्यगत बिन्दुओं के सापेक्ष अनियमित-यादृच्छिक रूप से गतिशील समय को समझने के लिए यह एक रूपक उपयुक्त हो सकता है। अपनी रफ्तार से कहीं तेज चल रहे इक्कीसवीं सदी के समय और सामाजिकी के इसी लगातार बदलते स्वरूप की तमाम विडंबनाओं, विद्रूपताओं और कटु यथार्थ को व्यंजित करता नोमान शौक का कविता संग्रह ‘रात और विषकन्या’ हमारे सामने है।
वैश्विक स्तर पर भूखंडों के एक हो जाने और विकास के लंबे-चौड़े आंकड़ों के शोरगुल के बीच मानवीय मूल्यों, संबंधों, प्रेम के तार के छीजते जाने से कवि हैरान है, “बड़े से बड़े विस्फोट के बावजूद/ बिल्कुल विलुप्त नहीं होंगे धरती से/ अनाकोंडा, भेड़िये और घड़ियाल/ हरे-भरे रहेंगे कैक्टस और बबूल/ जीवित रहेंगे जार्जबुश/ आतंकवाद और तालिबान/ खतरे में है/ सिर्फ और सिर्फ इनसान!” नोमान की कविताओं में वह दर्द नमूदार होता है जो दुनिया में मुसलमान होने के कारण पैदा होता है। गुजरात से बगदाद तक की इस टीस को कवि ऐसे अनुभव करता है, मानो यह उसकी निजी अनुभूति हो। ऐसे में कथित बुद्धिजीवियों की चुप्पी उसे और व्यथित करती है, “गर्म खून ही तो बहा है नालियों में/ गंगा या यमुना का पानी तो प्रदूषित नहीं हुआ/ नरसंहार ही तो हुआ है/ गो-हत्या तो नहीं हुई/ जब समर्थन में/ इतने सारे तर्क हों/ तो चुप रहा जा सकता है/ अंतरात्मा की अनुमति के बिना भी।”
समय की शिनाख्त की यह दृष्टि सांप्रदायिकता को लांघ कर साम्राज्यवादी चालाकियों, बेरोजगारी, कुशासन, बनावटी व्यवहारवाद और लिंगभेद तक पहुंचती है। एक तरफ कवि एकध्रुवीय साम्राज्यवादी ताकतों के खतरे के प्रति आगाह करता है, “वो आगे बढ़ रहे हैं/ आजादी की क्रूज मिसाइलें/ और खुशहाली के टैंक लेकर/ तुम्हारे ही खून-से/ तुम्हारे फूलों को सींचते हुए/ कर्बला के प्यासों में/ पेप्सी की बोतलें बांटते हुए/ वो आ रहे हैं” तो दूसरी ओर किसानों की आत्महत्याओं पर शासन को लजाने वाली उसकी स्वीकारोक्ति है, “बाजरे की झूमती बालियों से/ किसानों के खाली पेट तक/ कोई पुल नहीं बनता/ आत्महत्या के सिवा।” उसे यह चिंता भी है, “कल/ जब लड़कियां नहीं होंगी/ ओजोन की परत में बने किसी छेद से/ पैदा होंगे हमारे बच्चे।”
शिल्प-शैली और भाषा के स्तर पर भी संग्रह अपने निशान छोड़ता है। ‘उर्दू की खुशबू से लबरेज’ ये कविताएं कुछ नये विशेषण, जुमले और रूपक दे जाती हैं। इन्हें देखिए, ‘वासना के फूल’, ‘दीवारों पर प्लास्टर की तरह चढ़ी है कोई शक्ल’, ‘रंग-बिरंगी मौत’, ‘लोकतंत्र का भव्य बूचड़खाना’, ‘यकीन के अलबेले मौसम ’।
ऐसे जटिल और असंभव समय में ‘कब्रिस्तान में वॉयलिन बजाने’ का प्रयास करता रात और विषकन्या साम्राज्यवादी आशंकाओं, सांप्रदायिक विषवेल, असहिष्णुता, जैविक हथियारों की भयावहता आदि की सशक्त अभिव्यक्ति है। हालांकि पूरा संग्रह वैचारिकी की एक मुकम्मल तस्वीर पेश नहीं कर पाता, परन्तु ऐसा शायद हमारे समय के विखंडित स्वरूप के कारण ही है।
साभारः हिन्दुस्तान (09.09.2007)
पुस्तक--रात और विषकन्या, लेखक--नोमान शौक, प्रकाशक---भारतीय
ज्ञानपीठ, कीमत---135 रुपये
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