Monday, September 5, 2011

खानाबदोश आस्थाओं के लिए नई छत की तलाश

       
बीती सदी की विखंडित राजनीतिक और मानवीय आस्थाओं को बड़े क्षोभ और निर्ममता के साथ सार्वजनिक करती हैं, विद्याभूषण के कविता संग्रह बीस सुरों की सदी की कविताएं। वह सदी जिसका आधा आजाद भारत के सपने को साकार करने के संघर्ष में बीता और बाद का आधा बनने से पहले ही राजनीतिक तंत्र के विकृत होने और इस कारण लोक आशा के तितर-बितर होने में।

           वर्तमान के बहुरुपिया और मूर्तिभंजक (धार्मिक अर्थ में नहीं) समय में खानाबदोश आस्थाओं के लिए नई छत की तलाश करती इन कविताओं की पीड़ा कई अर्थों में असाधारण है।गर्म सांझ के पसरते धुएं में/मच्छरों के बांबीनुमा दड़बों से तंग आकर/मुहल्ले के फुटपाथ पर/चोर सिपाही खेल से उकताए बच्चे/जब भूख से बेहाल रोटी पकने का इंतजार करते हैं/मेरी कविता की प्रसव-पीड़ा शुरू हो जाती है। आखिर भौतिक विज्ञान  के विसरण का सिद्धांत विकास के संदर्भ में क्यों असफल हो गया? समाज के अंतिम सिरे पर बेहाल आदमी विकास की तमाम परियोजनाओं के कागजी सफर का मूकदृष्टा क्यों है? इन सरेआम घूमते सवालों को लेकर रचनाकार के मन में एक सार्थक और सोद्देश्य छटपटाहट है। विद्याभूषण के यहां धूमिल की सदिश उत्तेजना है तो नागार्जुन की उबड़-खाबड़ और असुंदर को पहचानने की पैनी दृष्टि और उसे स्पर्श करने का साहस। घाव को सोने की पत्ती से ढंककर रखने की अस्वास्थ्यकर प्रवृत्ति पर चोट ही प्रस्तुत संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है।

           हमारा समय परिवार, समाज और मूल्यों के विच्छिन्न होने की समस्या से दो-चार है। जहां संघर्ष जिंदा रहने के स्तर पर हो और शोषण अपने चरम पर, वहां कोई मृदुभावनाओं की पुलकन वाला गीत कैसे गा सकता है! समय और विचारों की सान पर चढ़ कर कवि का मृदुल स्वर भोथरा गया है। हारकर भी हार न मानने वाले योद्धा के मानिंद वह आगामी पीढ़ी को जो लहूलुहान विरासत सौंप रहा है, उसकी गीता कहती है, सुनो पार्थ/कमजोर आदमी से हथियार रखने को मत कहो/युद्ध जिजीविषा का हस्ताक्षर है/अन्यथा यह दुनिया जरासंध की जेल हो जाएगी।

             विद्याभूषण की चिंता भारत सहित तीसरी दुनिया के उन तमाम मुल्कों को लेकर भी है जिनकी कब्रगाह पर अपने उपनिवेश की इमारत खड़ी करने को एक ध्रुवीय विश्व का निरंकुश चीता बेताब है। सोवियत संघ के विघटन के बाद उस महाबली बहुरुपिये ने अपने संगी-साथियों के साथ इस दुनिया के देशों को बार-बार रौंदा है, बाहुबल के स्तर पर ही नहीं संस्कृति और वैचारिकी के स्तर पर भी।
        राजनीतिक संत्रास की इस वेला के पार विद्याभूषणबाकी इतिहास के रुपहले दिन की उस सुबह के इंतजार में मीलों-मील चलने का माद्दा रखते हैं जो सही मायनों मेंचमकीली, खुशनुमा और आजाद होगी और जिसके नायक मजदूर, कारीगर, विद्रोही, विचारक और फकीर होंगे। उस स्वप्निल मंजिल की पथरीली राह पर चलने के लिए बीस सुरों की सदी उन सभी को निमंत्रित करती है जो यह मानते हैं कि साहित्य में समाज को बदलने की ताकत होती है।
                                  
                     पुस्तक--बीस सुरों की सदी, लेखक--विद्याभूषण
                                           प्रकाशन संस्थान, 4715/21, दयानंद मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली110002
                                    कीमत---100 रुपये   

     साभारः हिन्दुस्तान(17.09.2006)

    

No comments:

Post a Comment