Thursday, September 8, 2011

नई आलोचना की सार्थक पहचान


   
देवेन्द्र चौबे द्वारा संपादित पुस्तक साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र का वैशिष्ट्य इस बात में है कि इसमें तीस-चालीस की उम्र के तीसेक युवा आलोचकों को शामिल किया गया है। इससे भी आगे, सौंदर्यबोध की तलाश में आलोचकों के इस हरावलदस्ते की दृष्टि इतिहास, स्वतंत्रता-संघर्ष, अंचलों में बिखरे लोक साहित्य, आजाद भारत के साहित्य, मंडल-मंदिर के परिप्रेक्ष्य में हुए राजनीतिक-सामाजिक व आर्थिक बदलावों, गांवों के पलायन और सिनेमा आदि पर भी पड़ती है। इन विविधधर्मी विषयों पर इतनी व्यापकता में चर्चा शायद इसलिए भी हो पाई है कि ये युवा आलोचक विभिन्न शैक्षणिक अनुशासनों से आते हैं।

     गौर करने लायक है कि स्त्री और दलित विमर्श की बहुस्तरीय जांच एकांगी नहीं है। एक ओर अगर स्त्रियों-दलितों की नारकीय स्थिति के लिए परंपरा, पितृसत्तात्मक समाज या ब्राह्मणवाद की ओर उंगली उठायी गई है तो दूसरी ओर स्वयं नारी और दलित रचनाकारों ने ही इन विमर्शों के औचित्य को प्रश्नांकित भी किया है। स्त्री और समय की लेखिका हेमलता महिश्वर कहती हैं, क्या स्त्री-देह के बिना स्त्री विमर्श नहीं हो सकता? दलित विमर्श की बात कीजिए तो देह-व्यापार, भद्दे और भौंडे किस्म के सेक्स की बात सामने आती है, स्त्री-पुरुष के बीच सेक्स संबंध हो या फिर पुरुष और पुरुष के बीच या फिर स्त्री और स्त्री के बीच। इनके बीच सेक्स स्वाभाविक तौर पर नहीं आता, बड़ी ही अस्वाभाविक और जुगुप्सा पैदा करने वाली तस्वीरें खींची जा रही हैं। अफसोस इस बात का है कि यही तस्वीरें स्त्री और दलित विमर्श की पहचान बनती चली जा रही हैं।

            हालांकि दलित विमर्श की शोधपरक और विस्तृत पड़ताल के दौरान सवर्णों को कठघरे में खड़ा करने की परंपरा का निर्वाह यहां भी किया गया है। यह बहुत हद तक स्वाभाविक और सही भी है, लेकिन इस बात की ओर किसी का ध्यान नहीं गया है कि दलित राजनीति या विमर्श के कारण उपेक्षित वर्ग से मुख्यधारा में आए तबकों का दलितोद्धार में क्या योगदान रहा है। आखिर कौन सी ताकत उन्हें सिक्कों और आभूषणों के बरक्स तौले जाने को बाध्य करती है। दलित साहित्य का समाजशास्त्र में जब विवेक कुमार दलितों को अपने लिए नए नायकों, प्रतीकों एवं एजेंडे को गढ़ने की सलाह देते हैं तो बात समझ में आती है, पर जब वे दलित शब्द की वर्गीय परिभाषा को परिमार्जित करते हुए जातीय आधार पर ही इसकी व्याख्या को सही करार देने का निर्णय सुनाते हैं तो अनजाने ही एक दलित समुदाय को नजरअंदाज कर रहे होते हैं जो थोपी गई सवर्णता के साथ परंपरागत दलितों का सा जीवन जीने को बाध्य है। क्या इसी तरह से उस समतापरक समाज की स्थापना का लक्ष्य पूरा होगा जिसको पुस्तक के एक अन्य लेखक रामचंद्र दलित साहित्य का उपादेय मानते हैं। अजय नवरिया स्वयं दलितों द्वारा लिखे गए साहित्य को हीसच्चा दलित साहित्य मानते हैं। पूछा जा सकता है कि निराला की तोड़ती पत्थर, भिक्षुक, प्रेमचंद की पूस की रात, ठाकुर का कुआं और नागार्जुन की हरिजन गाथा जैसी रचनाओं को किस श्रेणी में रखा जाए। क्या इस तरह का लेखकीय आरक्षण दलित साहित्य पर पुलिसिया पहरा नहीं होगा।

            पुरातन समाज से लेकर आधुनिक समाज के आर्थिक-धार्मिक वर्चस्व तंत्र पर इतने कोणों से विचार हुआ है कि एकबारगी सुखद आश्चर्य होता है। मध्यकालीन सत्ता विमर्श का एक पहलू को स्पष्ट करते हुए बजरंग बिहारी तिवारी ने शैव-वैष्णव, सगुण-निर्गुण संघर्ष के साथ ही वैष्णव-वैष्णव, सगुण-सगुण या निर्गुण-निर्गुण के बीच होने वाली हिंसक झड़पों के अल्पज्ञात पक्ष को ऐतिहासिक प्रामाणिकता के साथ उद्घाटित किया है। अन्य लेखों में विद्यापति के काव्य-सौंदर्य, भिखारी ठाकुर के नाटक, उत्तर आधुनिकता, साहित्य बनाम सिनेमा आदि मुद्दों पर बात की गई है।

           अपनी लोकोन्मुखता में समाज, राजनीति, अर्थशास्त्र और चली आती रूढ़ मान्यताओं की शिलाओं के टूटने के सौंदर्य के साथ साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र हिन्दी के नित नवीन और बड़े होते वैचारिक फलक का प्रमाण है। साथ ही भविष्य के साहित्य को लेकर एक आश्वस्ति भी।
             
                                       साभारः हिन्दुस्तान (29.07.2007)
                                
               पुस्तकसाहित्य का नया सौंदर्य शास्त्र, संपादक--- देवेन्द्र चौबे,
               प्रकाशककिताबघर प्रकाशन, 4855-56/24 अंसारी रोड,
                दरियागंज, दिल्ली, कीमत---495 रुपये




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