पत्रकार-नाटककार गौतम चटर्जी के दस नाटकों का संग्रह ‘दशरूपक’ भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की अवधारणा से अभिप्रेरित होते हुए भी उससे मुक्त है। प्रेरित इसलिए कि नाट्यशास्त्र की तर्ज पर ही इन नाटकों में संगीत, रस और भाव के माध्यम से अभिनेता रंगमंच पर ‘तीनों लोकों का भावानुकीर्तन’ करता है अर्थात सत्व, रज और तम से निर्मित अपनी चित्तवृत्ति से अभिनय को प्रकट करता है। और मुक्त इस अर्थ में कि यह उत्तर आधुनिक ‘दशरूपक’ पुनर्जन्म, मृत्यु, मुक्ति, प्रेम और यौनवृत्ति आदि के संदर्भ में अवचेतन की गहराइयों की थाह लेने के साथ ही समकालीन सामाजिक रुझानों, मीडिया और स्वयं रंगकर्म के अंधेरे नेपथ्य को मंच का प्रकाश देता है।
मृत्यु का अपरिचय सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है। मृत्यु जीवन का दुखद अंत है या इसकी सार्थकता की अंतिम कड़ी ? देह की राख जीवन की सभी संभावनाओं को निरस्त करती है या आत्मा को मुक्ति के राजपथ पर धकेल देती है ? अगर खत्म हो जाना ही संसार की परिणति है तो निरंतर जारी शव यात्रा वाली ऐसी सृष्टि का आयोजन ही क्यों ? भारतीय दर्शन इन पागल कर देने वाले प्रश्नों का उत्तर उपनिषदों के समय से ही देता रहा है। कठोपनिषद् का नचिकेता मनुष्य की वैराग्य वृत्ति और अज्ञात को जानने की उसकी ललक का सनातन प्रतीक है। ‘अन्तरा’ शीर्षक नाटक में अपने प्रेमी उत्तम की मौत पर अन्तरा द्वारा उत्तम के बारे में पूछे जाने पर ‘मृत्यु’ का कथन है- ‘(उत्तम) वहीं है जहां था। तीनों लोक यहीं हैं। भयलोक भी, भवलोक भी, भावलोक भी। इन्हीं का अनुकीर्तन देह में होता है। देह छोड़कर कोई कहीं जाता नहीं। वह वहीं रहता है, जहां वो था। उस स्तर पर जहां तक की तैयारी उसने देह में रहकर की थी। देह बदलने से बस देश बदल जाता है, काल बदल जाता है।’ जन्म, मृत्यु और मोक्ष के इन गूढ़ समीकरणों को कई मनोवैज्ञानिक स्तरों पर दिखाने की कोशिश है नाटक ’सन्ध्या भाषा’ और ’अन्तरा’।
कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम से लेकर आज तक स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम और यौन उत्कंठा आदि विषयों पर चर्चा होती आई है। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के शरीर से स्नेह रखते हैं या उस मनोदशा से जो उनके स्त्री या पुरुष कहे जाने के लिए उत्तरदायी होता है। अगर प्रेम उस स्त्री या पुरुष तत्व से होता है तो उम्र की ढलान पर प्रेम की आंच कम क्यों होती जाती है। पुरुषों के बीच सच्चे प्रेम के प्रति आग्रही होने और ऐसे प्रेम की अनुपस्थिति में भी शरीर की मांग के आगे स्वेच्छा से टूटने को विवश विभाजित नारी का चित्र खींचते नाटक हैं, ‘चौथा अध्याय’ और ‘अंधेरे अनुभव’।
‘दशरूपक’ में गौतम चटर्जी का पत्रकार अवसर पाते ही मंचस्थ होना चाहता है। नाटककार के दृष्टिवृत्त की परिधि में गर्भ के अंधेरे में ही लड़की को मार डालने की कन्या भ्रूण हत्या जैसी अंधी प्रवृत्तियों, उनके भावी दुष्परिणामों से लेकर संगीत और रंगमंच की दुनिया की ब्लैक कॉमेडी तक के रेखाचित्र हैं। सब पर नजर रखने वाली मीडिया पर रचनाकार की नजर है। कभी फ्रांस की क्रांति और भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का अग्रदूत रहा मीडिया आज उन तमाम भ्रष्टाचारों में लिप्त हो चुका है जिनमें अब तक केवल राजनीति ही डूबी हुई थी। मीडिया के ब्रेकिंग न्यूज की संस्कृति ने पत्रकारिता की मूल अवधारणाओं-उद्देश्यों को ही ब्रेक कर दिया है। ‘ईको चेम्बर’ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के स्वतंत्र चौथे खंभे के खोखलेपन को मंचित करता है।
‘दशरूपक’ की भाषा कहीं-कहीं ‘ऐब्सट्रैक्ट’ सी मालूम पड़ती है। विषय की गंभीरता को देखते हुए यह स्वाभाविक ही है। ‘दशरूपक’ हममें ’नचिकेता’ की संभावना को तलाशने और जीवनानुभवों को मनुष्य और अज्ञात के संबंधों के परिप्रेक्ष्य में देखने का नजरिया पैदा करने की कोशिश है।
साभारः हिन्दुस्तान (26.11.2006)
लेखक--गौतम चटर्जी, प्रकाशक---अभिरंग रंगसंस्था, एन. 11/38-बी,
रानीपुर, महमूरगंज, वाराणसी- 221010
कीमत—300 रुपये.
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