मराठी के प्रतिष्ठित साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण गायकवाड़ की प्रभा शेटे द्वारा हिन्दी में अनूदित पुस्तक पथर कटवा दक्षिण भारत के अति पिछडे़ वडार समाज के संघर्षपूर्ण जीवन की व्यथा-कथा है। यह जहाँ एक ओर विकासोन्मुख कहे जाने वाले देश-समाज की विद्रूपता को व्यंजित करती है वहीं दूसरी ओर दलितों में से उभरकर आए सुविधा-सम्पन्न वर्ग की स्वार्थान्धता और अपने ही समाज के प्रति उनकी उदासीनता को भी रेखांकित-प्रश्नांकित करती है।
उपन्यास समाज के वर्ण और वर्ग विभाजन को नए सन्दर्भ में देखता है। शोषित और शोषक के बीच की ऊँची दीवार को लाँघकर शोषकों की ओर जाने वाला भी इसी भूमिका में आ जाता है। कथा का केन्द्रीय पात्र तुकाराम वंचित वर्ग का होने के बावजूद अपनी सामाजिक संवेदना को बिसराता जाता है। उसे अपने समाज के बजाय केवल अपनी और अपने कारखाने के फायदे की फिक्र है। वह फैक्ट्री की शोषक नीतियों का समर्थक है। हालाँकि उसने कई वडारों को अपने यहाँ कामगार की नौकरी भी दी है, लेकिन ऐसा उसने फैक्ट्री में महज अपनी स्थिति को मजबूत करने के इरादे से किया है। हड़ताल आदि के समय इस लाबी का इस्तेमाल वह अपने फायदे के लिए करता है। नवधनाढ्य तुकाराम शराब, औरत और जागीर जैसी उन तमाम बुराइयों में डूब जाता है जिन्हें कथित सम्भ्रान्तों का दुर्गुण माना जाता है।
एक ही समुदाय के तुकाराम और मगरू धोतरे दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। तुकाराम सुविधाभोगी वर्ग का प्रतिनिधि है तो मगरू पिछड़ों में आ रही सामाजिक-राजनीतिक चेतना का प्रतीक जो उनकी दमनीय अवस्था से पैदा होती है और शासन से जिसकी अपेक्षाएँ आक्रोश की सीमा तक जाती हैं। वडार समाज की माँगों और परेशानियों को लेकर संघर्ष करने वाला मगरू धोतरे कभी तुकाराम की सूत फैक्ट्री में एक साधारण कामगार है, जिसे तुकाराम हड़ताल का नेतृत्व करने के कारण मौका पाते ही नौकरी से निकाल देता है।
तुकाराम का बेटा रामलाल इटकर उस नवसामन्त और अपनी जमीन से दूर होते वर्ग का हिस्सा है जो अपने पैतृक रसूख का तो अपने हित के लिए हरसम्भव गलत इस्तेमाल करता है पर आधुनिक बनने की होड़ में उन्हीं पुरखों के बुढ़ापे और बीमारी से घृणा भी करता है। आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद तुकाराम के दोनों बेटे रामलाल और पोपटलाल के बीच की अनबन और रामलाल द्वारा पिता की अवहेलना में एकल परिवार का द्वन्द्व भी देखा जा सकता है।
जनसत्ता में प्रकाशित ( 03.06.2007)
किताब-पथर कटवा, लेखक-लक्ष्मण गायकवाड़, अनुवाद-प्रभा शेटे
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली, 250 रुपए
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